बेजान लकडी के टुकड़ो में जान फूंकने वाला कलाकार

बेजान लकड़ी के टुकड़ों में जान फूंकने वाला कलाकार
> सतीश जोशी
इंदौर। कला नैसर्गिक होती है और यह किसी के सिखाए नहीं सीखी जाती है। हां, अच्छा गुरु मिल जाए तो वह तराशी जा सकती है। हम जिस शख्स की बात कर रहे हैं उसने एकलव्य की भांति बिना गुरु के ही अपनी कला को तराशा और बेजान लकडिय़ों में जान फूंकने का करिश्मा कर दिया। 
ऐसे ही कलाकार हैं सोहन जोशी एकलव्य, जो पिछले 50 साल से मौन साधना करते हुए लकड़ी के बेजान टुकड़ों में जान फूंक रहे हैं। लकडिय़ों पर आकृति देने की साधना पिछले कई सालों से जारी है और पेशेवर विकृति से दूर रहकर यह कठिन तपस्या उन्होंने की है। ईश्वर के रूप, मां की ममता उनके विषय हैं। प्रकृति की चिंता को स्वर देने वाला यह साधक देवास में रहने वाला है और कला जगत की भीड़ में अपने को अलग रख साधना कर रहा है। सार-संसार से दूर सोहन की यह साधना हिमालय की कंदराओं में तपस्यारत साधु की तरह है। सार-संसार से दूर साधना में रत् मुनि को नहीं पता कि कोई उसके बारे में क्या सोचता है। ठीक उसी तरह अपनी युवावस्था से ही लकड़ी के टुकड़ों को तराशते सोहन ने भी कला साधना को अपने भाव और कला की कंदराओं में कैद कर रखा है। उनकी एक-एक कृति प्रेम का अहसास है, भावनाओं के वशिभूत प्रेमियों का पवित्र आलंगन है, मां की ममता का दिव्य दर्शन है, ईश्वर की आराधना है, एक फक्कड़ आदमी की बेफिक्र जिंदगी है, एक मासूम बच्चे की भावभंगिमाएं हैं तो विरह-वेदना से भरी नायिकाएं हैं। 
प्रकृति के रंगों, प्रकृति के रस, प्रकृति के मासूम चेहरे की कला यात्रा है सोहन जोशी की। उन्होंने अपने नाम के आगे एकलव्य इसलिए लिखा कि गुरुदेव उनके अंत: में स्थापित है, वह मूर्त रूप में नहीं भाव में बसा है, पेशेवर कलाकारों से अलग धन की चिंताओं से मुक्त सोहन की तमन्ना यह है कि बस जीवन को सार्थक करती सांसे, कुछ याद करने वाली कृतियां भावी पीढ़ी के लिए दे जाएं।