नरेन्द्र मोदी अमित शाह को जनादेश से मिला सबक

जब भावनात्मक सवालों से बडे हो गये आर्थिक सवाल 


सतीश जोशी 


भाजपा की रणनीति यह थी कि अनुच्छेद 370, तीन तलाक, एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स) और सावरकर को भारत रत्न देने जैसे राष्ट्रीय मुद्दों को आगे किया जाए, जिससे कि बेरोजगारी और किसानों की समस्याएं जैसे आर्थिक मुद्दे सामने न आ पाएं। लेकिन नतीजे ये बता रहे हैं कि इस बार आर्थिक मुद्दों ने राजनीति को प्रभावित किया है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को महाराष्ट्र-हरियाणा की जनता ने नये जनादेश मे स्पष्ट संकेत दिए हैं कि भावनात्मक सवाल स्थानीय सवालों को दरकिनार नहीं कर सकते। जनता उन पर भी आक्रोश व्यक्त करती है। 370 समाप्ति  के साथ खडी जनता भी आर्थिक सवालों पर जनादेश दे रही है। आने वाले चुनावों के लिए यह बहुत बडा सबक और संकेत भी है।
महाराष्ट्र में विपक्ष भी हालांकि सौ से ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद नहीं कर रहा था। लेकिन जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के मामले में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार को तलब किया गया, तो उन्होंने कमर कस ली, और दम लगाकर चुनाव लड़े। यही हाल हरियाणा का हुआ। वहां कांग्रेस ने हुड्डा को पहले तो हाशिये पर डाल दिया था, लेकिन बाद में जब वह बगावती हुए, तो उन्हें केंद्रीय भूमिका मिली। इसके बाद अशोक तंवर को हटाया गया और कुमारी सैलजा को कमान दी गई। कांग्रेस ने यही कवायद अगर छह महीने पहले की होती, तो नतीजे शायद कुछ और ही होते, क्योंकि महाराष्ट्र में मराठा और हरियाणा में जाटों के साथ आर्थिक चुनौतियां हैं, जो सत्ता को प्रभावित करती है।

महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस और एनसीपी के विपक्षी गठबंधन ने बेहतर प्रदर्शन किया है। कमोबेश यही हालात हरियाणा में रही। दोनों ही राज्यों में विपक्ष ने अच्छा प्रदर्शन उन क्षेत्रों में किया, जहां मराठों और जाटों का प्रभाव है। जाहिर है, इन इलाकों में सत्ता से नाराजगी थी, क्योंकि अब तक मुख्यमंत्री इन्हीं जातियों के रहे हैं। पर भाजपा ने यह रूढ़ि तोड़ी-हरियाणा में मूलत: पंजाबी मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया, वहीं महाराष्ट्र में ब्राह्मण देवेंद्र फडणवीस को कमान सौंपी। मराठों और जाटों में कहीं न कहीं इस बात की भी नाराजगी थी कि इनको सत्ता में समान शक्ति नहीं मिली। साथ ही दोनों क्षत्रपों-महाराष्ट्र में शरद पवार और हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा-का जमीनी प्रभाव था। इसके अलावा ऐन चुनाव से पहले इन क्षत्रपों के खिलाफ जो मामले सामने आए, जिनकी जानकारी शायद पहले से रही होगी, वे उनके समर्थकों को रास नहीं आए और उन्हें लगा कि उनके नेताओं को निशाना बनाया गया है।

हालांकि चुनाव के दौरान कांग्रेस असहाय दिखी। उसके नेता अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे। उसमें एकजुटता की कमी थी। इसके बावजूद ये नतीजे हताश विपक्ष को नई ऊर्जा देंगे। उनको उनकी आवाज वापस मिली है। उसका असर संसद के साथ आने वाले चुनाव पर देखने को मिलेंगे। इससे पहले भाजपा और कांग्रेस, दोनों पार्टियों की रणनीतिक तैयारी केंद्रीकृत रही है, हाईकमान ने जो तय किया, वही सर्वमान्य हो गया। पर इस चुनाव ने बता दिया कि कांग्रेस का केंद्रीकृत मॉडल काम नहीं करने वाला। इस बार कांग्रेस की रणनीति बदली है। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनीं, तो उन्होंने दोनों राज्यों में क्षत्रपों को छूट दी, सोनिया गांधी प्रचार में भी शामिल नहीं हुईं। इसने क्षत्रपों को निर्णय लेने में मदद की, जिसका जमीनी स्तर पर प्रभाव दिखा।

महाराष्ट्र में शरद पवार की वापसी में मराठा फैक्टर ने बड़ी भूमिका निभाई। उनके खिलाफ ईडी का मामला आने के बाद एक वर्ग ने उनका समर्थन किया। पवार ने भी जी जान लगा दिया। कैंसर से पीड़ित और तकरीबन अस्सी साल के जो पवार ठीक से स्टेज पर चढ़ भी नहीं पाते थे, उठने-बैठने के लिए मदद लेते थे, उन्होंने रैलियों में आधा घंटे, एक घंटे भाषण किया। उनको भाजपा के अहंकार का भी फायदा मिला। लोगों में उनके प्रति सहानुभूति पैदा हुई कि कैसा भी हो, है तो महाराष्ट्र का नेता, जिसकी जिंदगी के पांच दशक से ज्यादा समय राजनीति में बीते हैं, और उनको निशाना बनाया जा रहा है।

महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने स्पष्ट किया है कि राजनीति में भावनात्मक मुद्दे एक हद तक काम करते हैं। जब लोगों की रोजी-रोटी पर बात आती है, तो वे जमीनी मुद्दों को तरजीह देते हैं। इन नतीजों के आधार में आर्थिक मुद्दों ने अहम भूमिका निभाई है।