अयोध्या:मोदी सरकार जैसी इच्छाशक्ति किसी में नहीँ थी









मोदी सरकार जैसी इच्छाशक्ति पहले की सरकारें क्यों नहीं दिखा पाईं ?






सतीश जोशी

सवाल यह  है कि मोदी सरकार की तरह केन्द्र की पूर्ववर्ती सरकारों ने राम जन्मभूमि मामले में  ऐसी इच्छाशक्ति क्यों नहीं दिखाई, जिससे अयोध्या विवाद को सुलझाया जा सकता था ? कुछ लोग कह सकते हैं कि ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि अयोध्या विवाद सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया गया हो, लेकिन हकीकत यही है कि अयोध्या विवाद अब तक नहीं सुलझा था तो इसके लिए सबसे अधिक कांग्रेस जिम्मेदार है क्योंकि उसने दशकों तक मजबूती के साथ देश पर राज किया था, जबकि अन्य दलों की जब भी केन्द्र में सरकारें बनीं तो उनको वह मजबूती नहीं मिल पाई, जिस मजबूती के साथ कांग्रेस की सरकारें चला करती थीं।

जनता पार्टी की सरकार जरूर अपवाद है, लेकिन पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने के बाद भी जनता पार्टी की सरकार अंर्तिवरोधाभास के चलते अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी। यहां तक कि मोदी भी अपने पहले कार्यकाल में अयोध्या विवाद सुलझाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे, क्योंकि एक तो संख्या बल के हिसाब से वह आज जितना मजबूत नहीं थे तो दूसरा राज्यसभा में भी उसका (मोदी सरकार) बहुमत नहीं था।

नहीं भूलना चाहिए कि आज अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए भले ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ की तारीफ हो रही हो, लेकिन इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट के 45वें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने भी अयोध्या विवाद सुलझाने की तमाम कोशिशें की थीं, लेकिन उनकी सभी कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकी थीं। फिर भी न्यायविद् दीपक मिश्रा जी को इसलिए तो याद किया ही जाता रहेगा कि उनकी अध्यक्षता वाली विशेष खंडपीठ ने ही अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि−बाबरी मस्जिद विवाद पर सिर्फ मालिकाना हक के वाद के रूप में ही विचार करने और तमाम हस्तक्षेपकर्ताओं को दरकिनार करने का निश्चय करके यह सुनिश्चित किया था कि इस संवेदनशील मामले में यथाशीघ्र सुनवाई शुरू हो सके।

 

    सवाल यह भी है कि क्यों वोट बैंक की सियासत के चलते केन्द्र की तमाम सरकारों ने इस विवाद पर ढुलमुल रवैया अपनाए रखना बेहतर समझा ? क्योंकि उन्हें इस बात का डर सताता रहता था कि कहीं उनका मुस्लिम वोटर नाराज होकर दूसरे पाले में न चला जाए, जबकि बीजेपी के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। बल्कि उसे तो इस बात की चिंता थी कि अगर वह मंदिर नहीं बना पाई तो उसका हिन्दू वोटर उससे नाराज हो जाएगा। बीजेपी के वोटर ही नहीं उसके विरोधी भी अकसर बीजेपी वालों पर लांछन लगाया करते थे, 'मंदिर वहीं बनवाएंगे, पर तारीख नहीं बताएंगे।' इसलिए उसने कड़ा रूख अख्तियार करते हुए सरकार का पक्ष पूरी गंभीरता के साथ रखा। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार और केन्द्र में मोदी सरकार होने की वजह से भी राह आसान होती चली गई।

 

   पहले तीन तलाक फिर कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद अब अयोध्या विवाद को भी शांति पूर्वक सुलझा कर मोदी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि अगर सरकार मजबूत हो तो रास्ते अपने आप सुगम हो जाते हैं। अयोध्या विवाद पर उच्चतम न्यायालय के बहुप्रतीक्षित फैसले को देश ने धैर्य के साथ स्वीकार किया और कहीं पर भी कोई ऐसी अप्रिय घटना नहीं हुई। उच्चतम न्यायालय के फैसले को उन्होंने भी स्वीकार किया जो अयोध्या में मस्जिद निर्माण के पक्ष में पैरवी कर रहे थे। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय के फैसले को करीब−करीब सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने भी स्वीकार किया। इनमें वे दल भी हैं जो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग का न केवल विरोध किया करते थे, बल्कि ऐसी मांग के समर्थकों के तिरस्कार का कोई मौका भी नहीं छोड़ते थे। इतना ही नहीं, राम मंदिर निर्माण की मांग को खारिज करने को एक तरह का सेक्युलर दायित्व बना दिया गया। इसी के साथ मस्जिद के स्थान पर प्राचीन राम मंदिर होने का उल्लेख करने वालों को भी निंदित किया जाने लगा। सबसे दुर्भाग्य की बात यह रही कि इस काम में खुद को इतिहासकार कहने वाले लोग भी शामिल हो गए। इन इतिहासकारों की ओर से अयोध्या में राम मंदिर होने के अलावा अन्य सब कुछ होने के विचित्र और हास्यास्पद दावे किए जाने लगे। ऐसे ही दौर में जब भाजपा ने खुद को अयोध्या आंदोलन से जोड़ा तो स्वयं को सेक्युलर−लिबरल कहने वाले नेताओं और विचारकों ने उसे लांछित करना शुरू कर दिया। उनकी ओर से ऐसा प्रचारित किया जाने लगा मानो समाज के एक बड़े वर्ग की भावनाओं से जुड़े किसी मसले को उठाना कोई संगीन राजनीतिक अपराध हो। भाजपा को अछूत बनाकर रख दिया गया। मुसलमानों के मन में भाजपा के प्रति जहर घोला जाता रहा, इसी के सहारे कांग्रेस ने वर्षों तक देश पर राज किया तो मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती जैसे नेताओं ने वर्षों तक यूपी−बिहार में राज किया। तुष्टिकरण की इसी राजनीति ने देश में एक ऐसा माहौल बनाया जिससे न्यायपालिका में यह संदेश गया कि अयोध्या विवाद हल करने में उसे ज्यादा रूचि नहीं दिखानी चाहिए।