मुफ्तखोरी की राजनीति, कैसा समाज बना रहे हम?
प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को भी ढकती है, और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। अर्थव्यवस्था और राज्य की माली हालत को ताक पर रखकर लगभग सभी पार्टियों व सरकारों ने गहने, लैपटॉप, टीवी, स्मार्टफोन से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटा है या बांटने का वादा किया है। यह मुफ्तखोरी की पराकाष्ठा है।
मुफ्त दवा, मुफ्त जाँच, लगभग मुफ्त राशन, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त विवाह, मुफ्त जमीन के पट्टे, मुफ्त मकान बनाने के पैसे, बच्चा पैदा करने पर पैसे, बच्चा पैदा नहीं (नसबंदी) करने पर पैसे, स्कूल में खाना मुफ्त, मुफ्त जैसी बिजली, 200 रुपए महीना, मुफ्त तीर्थ यात्रा। जन्म से लेकर मृत्यु तक सब मुफ्त। मुफ्त बाँटने की होड़ मची है, फिर कोई काम क्यों करेगा? मुफ्त बांटने की संस्कृति से देश का विकास कैसे होगा? पिछले दस सालों से लेकर आगे बीस सालों में एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार हो रही है या हमारे नेता बना रहे हैं, जो पूर्णतया मुफ्त खोर होगी। अगर आप उनको काम करने को कहेंगे तो वे गाली देकर कहेंगे कि सरकार क्या कर रही है?
विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही हैं। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम 'नागरिक नहीं परजीवी' तैयार कर रहे हैं। देश का टैक्स दाता अल्पसंख्यक वर्ग मुफ्त खोर बहुसंख्यक समाज को कब तक पालेगा? जब ये आर्थिक समीकरण फेल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी। जिसने जीवन में कभी मेहनत की रोटी नहीं खाई होगी, वह हमेशा मुफ्त की खायेगा। नहीं मिलने पर, ये पीढ़ी नक्सली बन जाएगी, उग्रवादी बन जाएगी, पर काम नहीं कर पाएगी। यह कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं? यह कैसी विसंगतिपूर्ण राजनीति है? राजनीति छोड़कर, गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है।