सत्ता के लिये जो कीमत चुका रहे हो, विचार करो

 


सत्ता के लिए चुकाई जाने वाली कीमत पर विचार करेंगे!


सतीश जोशी 


महाराष्ट्र में जो हुआ, उसने हमारी दलगत राजनीति की संकीर्णताओं और वैचारिक दिवालियेपन को एक बार फिर पूरी तरह बेनकाब कर दिया है। भाजपा-शिवसेना के बीच 50-50 के फॉर्मूले पर कब और क्या चर्चा हुई—वे ही बेहतर जानते होंगे।


जाहिर है, राजनीतिक सौदेबाजी के दस्तावेज तैयार नहीं किये जाते। यह सही है कि सामान्यत: ज्यादा विधायकों वाले दल को ही मुख्यमंत्री पद दिया जाता है, लेकिन उसके उलट भी उदाहरण कम नहीं हैं हमारी सत्तालोलुप राजनीति में। कर्नाटक में कांग्रेस के समर्थन से कम विधायकों वाले जनता दल-सेक्यूलर के एच डी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने ही। सत्ता के बेशर्म खेल की और भी पराकाष्ठा देखनी हो तो झारखंड याद कर लीजिए, जहां एक निर्दलीय मुध कोडा राजनीतिक दलों की मेहरबानी से मुख्यमंत्री बनकर संविधान और लोकतंत्र का मखौल बनाते रहे। इसमें दो राय नहीं कि तीन दशक पुराना भाजपा-शिवसेना गठबंधन मुख्यत: विचारधारा पर ही आधारित था। जब तक शिवसेना के ज्यादा विधायक चुनकर आते रहे, मुख्यमंत्री पद उसी के हिस्से रहा, लेकिन वर्ष 2014 में भाजपा ने अलग चुनाव लड़कर और ज्यादा सीटें जीत कर जब शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनायी तो मुख्यमंत्री पद भी ले ही लिया। शायद शिवसेना को लगता है कि भाजपा ने छल-बल से यह बड़े भाई की भूमिका हासिल की।
बेशक हमारी राजनीति में छल-बल समेत किसी भी हथकंडे का इस्तेमाल अब अप्रत्याशित नहीं रह गया है। इस बार विधानसभा चुनाव परिणाम आते ही शिवसेना ने जिस तरह के तेवर दिखाये, निश्चय ही वे गठबंधन धर्म के अनुरूप नहीं थे, पर क्या भाजपा का व्यवहार बड़े भाई की भूमिका वाला रहा? बड़े से ही ज्यादा बड़प्पन की अपेक्षा की जाती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि दरअसल बड़प्पन से ही कोई बड़ा बनता है। सच यह भी है कि शिवसेना की नाराजगी भाजपा से कहीं ज्यादा उसके मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस की कार्यशैली और व्यवहार को लेकर रही। ऐसे में तो यह और भी आश्चर्यजनक है कि केंद्र और ज्यादातर राज्यों में राज कर रही भाजपा ने इस नाराजगी को तीन दशक से भी पुरानी राजनीतिक मित्रता को शत्रुता में बदल जाने तक चला जाने दिया। अगर राष्ट्र और राज्य के हित में भाजपा जम्मू-कश्मीर में पीडीपी सरीखी संदिग्ध पार्टी के साथ चुनाव पश्चात गठबंधन कर सरकार बना सकती है, तब शिवसेना के साथ मुख्यमंत्री पद के बंटवारे में क्या बुराई थी? शायद शिवसेना के जूनियर पार्टनर से विधानसभा में सबसे बड़ा दल बन चुकी भाजपा की निगाहें अकेलेदम बहुमत के लक्ष्य पर लगी हैं। ऊंचे लक्ष्य निर्धारित करने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन उन्हें हासिल करने के तरीके और चुकायी जाने वाली कीमत पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए।